एक ओर जहां भारत में आधुनिकतावादी एवं पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है, वहीं आज के कम्प्यूटराइज्ड युग में भी ग्रामीण समाज अंधविश्वास एवं दकियानूसी के जाल से मुक्त नहीं हो पाया है। देश के कई हिस्सों में जादू-टोना, काला जादू, डाइन जैसे शब्दों का महत्व अभी भी बना हुआ है। उडीसा भी इस अंधविश्वास से अछूता नहीं है।
‘जादुई राज्य’ के नाम से विख्यात उडीसा में अंधविश्वास का इतिहास काफी पुराना रहा है। आज के आधुनिक माहौल में भी उडीसा में डाइन को पीट-पीट कर मार डालने जैसी सनसनीखेज घटनाएं जारी हैं। उडीसा में हर वर्ष दर्जनों महिलाओं को डाइन करार देकर उनकी हत्या कर दी जाती है। इन महिलाओं में अधिकांश विधवा या अकेली रहने वाली महिलाएं शामिल होती हैं। हालांकि इन महिलाओं का लक्ष्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं होता है, लेकिन ओझा (जादू-टोना करने वाले व्यक्ति) द्वारा किसी महिला को डाइन करार देने के बाद ग्रामीण समुदाय इनका बहिष्कार करने एवं इनकी हत्या करने को आमादा हो जाता है।
एक गैर-सरकारी संगठन के अनुसार भारत में हर वर्ष लगभग २०० महिलाओं को डाइन होने के संदेह में मौत के घाट उतार दिया जाता है। असम पुलिस के आंकडों के अनुसार पिछले ५ वर्षों में पूर्वोत्तर भारत में डाइन होने के संदेह में कम से कम २०० महिलाओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है। असम में इसी महीने २४ अप्रैल को एक मां और उसकी बेटी को डाइन होने के शक में मौत के घाट उतार दिया गया। इन दोनों के सिर काट कर नदी में फेंक दिए गए। उडीसा ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में भी डाइन होने के संदेह में महिलाओं की हत्याएं की जाती रही हैं। इन राज्यों में बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं। एक आंकडे के अनुसार झारखंड के आदिवासी जिलों में १९९०-१९९६ की अवधि में डाइन होने के संदेह में लगभग ४०० महिलाओं की हत्या की गयी थी। विश्लेषकों का मानना है कि आदिवासी-बहुल राज्यों में साक्षरता दर का कम होना भी अंधविश्वास का एक प्रमुख कारण है। यहां महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
राज्य में ओझाओं द्वारा डाइन द्वारा करार दिए जाने के बाद महिला के शारीरिक शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। ओझा इन महिलाओं को लोहे के गर्म सरिए से दागते हैं, उनकी पिटाई करते हैं, उन्हें गंजा करते हैं और फिर इन्हें नंगा कर गांव में घुमाया जाता है। यहां तक कि इस कथित डाइन महिला को मल खाने के लिए भी विवश किया जाता है। उदाहरण के लिए किसी विधवा द्वारा पडोसी या किसी संबंधी के घर में प्रवेश करने के बाद यदि उस घर का कोई सदस्य बीमार पड जाता है या उसकी मौत हो जाती है तो इस विधवा को डाइन समझ लिया जाता है और इसकी सूचना तुरंत स्थानीय ओझा को दे दी जाती है। बीमारी फैलने, मवेशियों के मरने और खेतों में खडी फसल को नुकसान होने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए अक्सर इन अकेली रहने वाली महिलाओं एवं वृद्घ दंपतियों को दोषी माना जाता रहा है और उन्हें ग्रामीणों के हमले का शिकार होना पडता है।
दूसरी ओर राज्य की पुलिस का मानना है कि इस तरह की घटनाओं के पीछे अक्सर जमीन-जायदाद की मुख्य भूमिका होती है। पुलिस रिकॉर्डो के अनुसार ऐसी घटनाएं भी सामने आती रही हैं जिनमें किसी विधवा या अकेली रहने वाली महिला की जमीन-जायदाद हडपने के लिए उस महिला को डाइन करार दे दिया जाता है एवं उसकी हत्या कर दी जाती है और बाद में उसकी संप?ा पर क?जा कर लिया जाता है। ऐसी घटनाओं के पीछे इस महिला के संबंधी या पडोसियों की मुख्य भूमिका होती है। इस काम में भी ओझाओं की मदद ली जाती है। आदिवासी-बहुल उडीसा में अंधविश्वास की तेज बढो?ारी में इन ओझाओं की खास भूमिका रही है। इनका प्रथम लक्ष्य होता है पैसा ठगना। ये ओझा महिलाओं को भूत-प्रेत का शिकार बताकर अच्छी रकम ऐंठते हैं। ओझा पुरुष एवं औरत दोनों हो सकते हैं। आदिवासी जिलों, खासकर सुंदरगढ, कोरापुट, मयूरभंज, क्योंझर आदि में अंधविश्वास का अधिक बोलबाला है। ग्रामीण समुदाय के लोग किसी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए डॉक्टर पर कम, इन ओझाओं पर अधिक विश्वास करते हैं। ये ओझा इन लोगों की बीमारी का जादू-टोने के माध्यम से इलाज का दावा करते हैं। इन्हें एक ताबीज पहनने को दिया जाता है। इसके साथ-साथ कुछ तंत्र-मंत्र करने को भी कहा जाता है।
कुछ समय पहले ही पुरी जिले के पार्सीपाडा गांव के एक युवक रमाकांत ने अंधविश्वास से प्रेरित होकर रोग से छुटकारा पाने के लिए अपनी जीभ काटकर भगवान शिव को चढा दी। उडीसा के एक आदिवासी गांव की आरती की कहानी तो और भी दर्दनाक है। पिछले वर्ष एक ओझा द्वारा आरती की हत्या का मामला सुर्खियों में आया था। जादू-टोने के सिलसिले में आरती का इस ओझा के यहां आना-जाना था। एक दिन ओझा ने जब आरती के साथ शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा जाहिर की तो आरती ने इसका विरोध किया। उसके इनकार के बाद इस ओझा ने आरती के साथ बलात्कार किया और बाद में उसकी हत्या कर दी थी। उडीसा के कई आदिवासी जिलों में नाबालिग बच्चों की बलि एवं पशु बलि की प्रवृ?ा भी यहां जारी है। सुबर्णपुर में बलि महोत्सव खास चर्चा का केंद्र रहा है। बलि महोत्सव १४ दिनों तक चलता है। इस महोत्सव में एक महिला बरूआ देवी की भूमिका निभाती है। इसमहिला का चयन महोत्सव के मुख्य पुजारी करते हैं। यह महिला बलि चढाए गए पशुओं का रक्त पीती है। यदि यह महिला ऐसा नहीं करती है या संकोच दिखाती है तो उसे पशुओं का रक्त पीने को बाध्य कर दिया जाता है। महोत्सव के आयोजकों एवं अन्य लोगों का मानना है कि ऐसा करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
हालांकि जिला प्रशासन द्वारा इस तरह के महोत्सवों की अनुमति नहीं दी जाती है। राज्य में सक्रिय कुछ पशु अधिकारवादी संगठनों ने भी पशु बलि के खिलाफ आवाज उठाई है, लेकिन इसके बावजूद जिले के कई आदिवासी गांवों में इस तरह के आयोजनों की खबरें सुनने को मिलती रही हैं। ये लोग दशकों से जारी अपनी परंपराओं को समाप्त नहीं करना चाहते हैं।
Sunday, August 5, 2007
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1 comment:
ओड़िशा में आज भी ओझाओं, तान्त्रिकों, विशेषकर ऐसी महिलाओं का प्रभाव व्यावहारिक रूप से विद्यमान है। इन्हें थोथा ढोंगी या ठगी मानकर अनदेखी करना या लापरवाही बरतना भी खतरनाक होता है। कुछ ऐसी महिलाएँ भी पाईं गईं है, जिनकी नजर पड़ते ही बच्चे भयंकर बीमार पड़ जाते हैं।
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